Indian Spiritual tradition has propounded four Purusharth (objectives) of a human life. These being Dharm (Righteousness), Arth (Material Pursuits), Kaam (Contentment) and Moksh (Enlightenment). Shri Mata Vaishno Devi is believed to grant all the four boons to those who visit Her Holy Shrine. She is considered to fulfill anything and everything that a person wishes for in life, in a righteous way. It is an experience of all, that no one goes empty handed from Her Great Pilgrimage.

The journey to the Holy Shrine of Mata Vaishno Devi is thus an enchanting journey of the places where Mata Vaishnavi had spent some time while observing various spiritual disciplines and penances. The culmination of this journey is at the Holy Cave where She merged Her Human form with the astral form of Her creators, the three Supreme Energies

History of Maa Vaishno Devi

 
वैष्णो देवी की कहानी
 

 
जम्मू में स्थित माँ वैष्णो देवी की महिमा अपरम्पार है । जो भक्त्त अपनी मुरादें लेकर मैया के दाराबार में पहुँचते है । भक्त्त वत्सला माता अपने भक्तो को पुत्रवत स्नेह करती है और मुरादें पुरी करती है । कोई भी भक्त्त माँ के दरबार से निराश नही लौटता है । माँ वैष्णो देवी 'त्रिकुट पर्वत' पर महाकली लक्ष्मी, और महासरस्वती के तीन पिंडो के रूप में विराज करती है । जहा हर साल बहुत श्रद्धालु माता के दर्शन के लिए आते है और कठिन चढाई चढ़ते है ।

पृथ्वी पर अनेको बार अशुरों के अत्याचार हुए और उनके अत्याचारों के बोझ से जब पृथ्वी धँसने लगी तब तब दिव्य रूप में देवी शक्तियों ने अवतार लिया और पृथ्वी को भार मुक्त किया है । एक बार माँ लक्ष्मी, माँ कली, और माँ सरस्वती ने त्रेता युग में दत्यो का अत्याचार का अंत करने के लिए और संत जानो की रक्षा करने के लिए अपनी समस्त शक्तियों से एक दिव्या कन्या को उत्पन करने का निशचय किया । उनके नेत्रों से निकली दिव्या ज्योति से एक कन्या प्रकट हुई उसके हाथ में त्रिशूल और ओ शेर पर सवार थी । उस कन्या ने तीनो महा शक्तियों के तरफ़ देखकर कहा - हे महा शक्तियों आपने मुझे क्यों उत्पन किया है मेरी उत्पति का क्या प्रयोजन है कृपा करके मुझे बताइए ।

तब तीनो महा देवियों ने कहा - हे कन्या धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश करने के लिए हमने तुम्हे उत्पन किया अब तुम हमारी बात मानकर दक्षिण भारत में रतनाकर सागर की पुत्री के रूप में जन्म लो । वहा तुम भगवन विष्णु के अंश से उत्पन होओगी आत्म प्रेरणा से धर्म हित का कार्य
महादेवियो की अनुमती लेकर ओ दिव्य कन्या उसी क्षण रतनाकर सागर के घर गई और उनकी पत्नी के गर्भ में स्थित हो गई । समयानुसार उस कन्या की उत्पति हुई । उस कन्या का मुखमंडल सूर्य के सामान अद्भुत और अलौकिक था । रतनाकर सागर के उस कन्या का नाम त्रिकुटा रखा । थोड़े ही दिनों में त्रिकुटा ने अपने दिव्य शक्तियों से सभी ऋषियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया अर्थात सभी ऋषि जन उसे दिव्य अवतार मानने लगे । त्रिकुटा भगवान् विष्णु की बहुत निष्ट और लग्न से पूजा करती थी इसी कारन उसे सब लोग वैष्णवी कह कर बुलाते थे । कुछ दिन और बीत जाने के बाद त्रिकुटा ने अपने माता पिता की अनुमति लेकर ओ तप करने समुन्द्र तट पर चली गई । वहा साध्वी का वेश बनाकर एक छोटी सी कुटी में रहने लगी ।

उन्ही दिनों श्री राम की पत्नी सीता का हरण करके रावन ले गया था । सीता खोज करते हुए एक दिन श्री राम जी अपनी वानर सेना सहित वहा पधारे और उस दिव्य कन्या को तप करते हुए देखकर बोले - हे सुंदरी वह कौनसा कारन है अथवा वह कौनसा प्रोयोजन है जिस कारन तुम इतना कठोर तप कर रही हो । श्री राम के पूछने पर त्रिकुटा ने अपने नेत्र खोलकर देखा तो श्री राम जी अपने अनुज लक्ष्मण और वानर सेना सहित खड़े है । उन्हें देखकर त्रिकुटा के हर्ष के सीमा न रही । वह प्रसन्न होकर प्रभु को प्रणाम करने के उपरांत वह विनीत भावः से बोली - आपको पति रूप में प्राप्त करना ही मेरी तपस्या का कारन है । अत: मुझे अपनाकर मेरी तपस्या का फल प्रदान करने की कृपा करे । तब भगवान् श्री राम जी के कहा - हे सुमुखी इस अवतार में मैंने पत्नीव्रत होने का निसचय किया है । अत : इस जन्म में तुम्हारी अभिलाषा नही पूर्ण कर सकता किंतु मुझे प्राप्त करने के उद्देश्ये से तुमने कठिन तप किया है इसलिए तुम्हे ये वचन देता हु की की सीता सहित लंका से लौटते समय हम तुम्हारे पास भेष बदलकर आयेंगे और उस समय तुमने हमें पहचान लिए तो हम तुम्हे अपना लेंगे ।

श्री राम जी अपनी सेना सहित लंका की ओर चले गए । लंका में उनका रावन से भीषण सग्राम हुआ और अंत में रावन की मृत्यु हो गई । उसके बाद सीता की अग्नि परीक्षा लेकर पुष्क विमान पर सवार होकर आ रहे थे तब उन्होंने विमान रोक कर सीता और लक्षमण से बोले - तुम येही ठहरो हम थोडी देर में आते है उसके बाद श्री राम जी ने एक वृद्ध साधू का रूप धारण कर त्रिकुटा के सामने पहुचे, त्रिकुटा उन्हें पहचान ना सकी तब श्री राम जी अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर बोले- हे कन्या पूर्व कथा नुसार तुम परीक्षा में असफल रही अत : तुम कुछ काल तक तप करो कलयुग में जब मेरा 'कालिका अवतार' होगा तब तुम मेरी सहचरी बनोगी, उस समय उत्तर भारत में मानिक पर्वत पर तीन शिखर वाले मनोरमा गुफा में जहा तीन महा शक्तियो का निवास है वहां तुम भी अमर हो जाओगी। तप करो महाबली हनुमान तुम्हारे पहरी होंगे तथा सम्पूर्ण पृथ्वी पर तुम्हारी पूजा होंगी । तुम 'वैष्णो देवी' के नाम से तुम्हारी जगत महिमा जगत विख्यात होंगी ।
 

Maa Vaishno Devi Story 

 

आपने जम्मू की वैष्णो माता का नाम अवश्य सुना होगा। आज हम आपको इन्हीं की कहानी सुना रहे हैं, जो बरसों से जम्मू-कश्मीर में सुनी व सुनाई जाती है। कटरा के करीब हन्साली ग्राम में माता के परम भक्त श्रीधर रहते थे। उनके यहाँ कोई संतान न थी।


वे इस कारण बहुत दुखी रहते थे। एक दिन उन्होंने नवरात्रि पूजन के लिए कुँवारी कन्याओं को बुलवाया। माँ वैष्णो कन्या वेश में उन्हीं के बीच आ बैठीं। अन्य कन्याएँ तो चली गईं किंतु माँ वैष्णो नहीं गईं। वह श्रीधर से बोलीं-‘सबको अपने घर भंडारे का निमंत्रण दे आओ।’ श्रीधर ने उस दिव्य कन्या की बात मान ली और आस-पास के गाँवों में भंडारे का संदेश पहुँचा दिया। लौटते समय गोरखनाथ व भैरवनाथ जी को भी उनके चेलों सहित न्यौता दे दिया। सभी अतिथि हैरान थे कि आखिर कौन-सी कन्या है, जो इतने सारे लोगों को भोजन करवाना चाहती है? श्रीधर की कुटिया में बहुत-से लोग बैठ गए। दिव्य कन्या ने एक विचित्र पात्र से भोजन परोसना आरंभ किया। जब कन्या भैरवनाथ के पास पहुँची तो वह बोले, ‘मुझे तो मांस व मदिरा चाहिए।’ ‘ब्राह्मण के भंडारे में यह सब नहीं मिलता।’ कन्या ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया। भैरवनाथ ने जिद पकड़ ली किंतु माता उसकी चाल भाँप गई थीं। वह पवन का रूप धारण कर त्रिकूट पर्वत की ओर उड़ चलीं। भैरव ने उनका पीछा किया। माता के साथ उनका वीर लंगूर भी था। एक गुफा में माँ शक्ति ने नौ माह तक तप किया। भैरव भी उनकी खोज में वहाँ आ पहुँचा। एक साधु ने उससे कहा, ‘जिसे तू साधारण नारी समझता है, वह तो महाशक्ति हैं।’ भैरव ने साधु की बात अनसुनी कर दी। माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं।



वह गुफा आज भी गर्भ जून के नाम से जानी जाती है। देवी ने भैरव को लौटने की चेतावनी भी दी किंतु वह नहीं माना। माँ गुफा के भीतर चली गईं। द्वार पर वीर लंगूर था। उसने भरैव से युद्ध किया। जब वीर लंगूर निढाल होने लगा तो माता वैष्णो ने चंडी का रूप धारण किया और भैरव का वध कर दिया।भैरव का सिर भैरों घाटी में जा गिरा। तब माँ ने उसे वरदान दिया कि जो भी मेरे दर्शनों के पश्चात भैरों के दर्शन करेगा, उसकी सभी मनोकामनाएँ पूरी होंगी। आज भी प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु माता वैष्णों के दर्शन करने आते हैं। गुफा में माता पिंडी रूप में विराजमान हैं।

           

 

   
 
   
       

 

Maa Vaishno Devi Yatra

 

 

Maa Vaishno Devi Yatra Video Part-1

Maa Vaishno Devi Yatra Video Part-2

 

गणगौर की पौराणिक व्रत कथा  

 
 
 
एक बार भगवान शंकर तथा पार्वतीजी नारदजी के साथ भ्रमण को निकले। चलते-चलते वे चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन एक गाँव में पहुँच गए। उनके आगमन का समाचार सुनकर गाँव की श्रेष्ठ कुलीन स्त्रियाँ उनके स्वागत के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं।

भोजन बनाते-बनाते उन्हें काफी विलंब हो गया। किंतु साधारण कुल की स्त्रियाँ श्रेष्ठ कुल की स्त्रियों से पहले ही थालियों में हल्दी तथा अक्षत लेकर पूजन हेतु पहुँच गईं। पार्वतीजी ने उनके पूजा भाव को स्वीकार करके सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया। वे अटल सुहाग प्राप्ति का वरदान पाकर लौटीं। तत्पश्चात उच्च कुल की स्त्रियाँ अनेक प्रकार के पकवान लेकर गौरीजी और शंकरजी की पूजा करने पहुँचीं। सोने-चाँदी से निर्मित उनकी थालियों में विभिन्न प्रकार के पदार्थ थे।

उन स्त्रियों को देखकर भगवान शंकर ने पार्वतीजी से कहा- 'तुमने सारा सुहाग रस तो साधारण कुल की स्त्रियों को ही दे दिया। अब इन्हें क्या दोगी?'

पार्वतीजी ने उत्तर दिया- 'प्राणनाथ! आप इसकी चिंता मत कीजिए। उन स्त्रियों को मैंने केवल ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया है। इसलिए उनका रस धोती से रहेगा। परंतु मैं इन उच्च कुल की स्त्रियों को अपनी उँगली चीरकर अपने रक्त का सुहाग रस दूँगी। यह सुहाग रस जिसके भाग्य में पड़ेगा, वह तन-मन से मुझ जैसी सौभाग्यवती हो जाएगी।'

जब स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर दिया, तब पार्वतीजी ने अपनी उँगली चीरकर उन पर छिड़क दी। जिस पर जैसा छींटा पड़ा, उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। तत्पश्चात भगवान शिव की आज्ञा से पार्वतीजी ने नदी तट पर स्नान किया और बालू की शिव-मूर्ति बनाकर पूजन करने लगीं। पूजन के बाद बालू के पकवान बनाकर शिवजी को भोग लगाया।


प्रदक्षिणा करके नदी तट की मिट्टी से माथे पर तिलक लगाकर दो कण बालू का भोग लगाया। इतना सब करते-करते पार्वती को काफी समय लग गया। काफी देर बाद जब वे लौटकर आईं तो महादेवजी ने उनसे देर से आने का कारण पूछा।

उत्तर में पार्वतीजी ने झूठ ही कह दिया कि वहाँ मेरे भाई-भावज आदि मायके वाले मिल गए थे। उन्हीं से बातें करने में देर हो गई। परंतु महादेव तो महादेव ही थे। वे कुछ और ही लीला रचना चाहते थे। अतः उन्होंने पूछा- 'पार्वती! तुमने नदी के तट पर पूजन करके किस चीज का भोग लगाया था और स्वयं कौन-सा प्रसाद खाया था?'

स्वामी! पार्वतीजी ने पुनः झूठ बोल दिया- 'मेरी भावज ने मुझे दूध-भात खिलाया। उसे खाकर मैं सीधी यहाँ चली आ रही हूँ।' यह सुनकर शिवजी भी दूध-भात खाने की लालच में नदी-तट की ओर चल दिए। पार्वती दुविधा में पड़ गईं। तब उन्होंने मौन भाव से भगवान भोले शंकर का ही ध्यान किया और प्रार्थना की - हे भगवन! यदि मैं आपकी अनन्य दासी हूँ तो आप इस समय मेरी लाज रखिए।


यह प्रार्थना करती हुई पार्वतीजी भगवान शिव के पीछे-पीछे चलती रहीं। उन्हें दूर नदी के तट पर माया का महल दिखाई दिया। उस महल के भीतर पहुँचकर वे देखती हैं कि वहाँ शिवजी के साले तथा सलहज आदि सपरिवार उपस्थित हैं। उन्होंने गौरी तथा शंकर का भाव-भीना स्वागत किया। वे दो दिनों तक वहाँ रहे।

तीसरे दिन पार्वतीजी ने शिव से चलने के लिए कहा, पर शिवजी तैयार न हुए। वे अभी और रुकना चाहते थे। तब पार्वतीजी रूठकर अकेली ही चल दीं। ऐसी हालत में भगवान शिवजी को पार्वती के साथ चलना पड़ा। नारदजी भी साथ-साथ चल दिए। चलते-चलते वे बहुत दूर निकल आए। उस समय भगवान सूर्य अपने धाम (पश्चिम) को पधार रहे थे। अचानक भगवान शंकर पार्वतीजी से बोले- 'मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया हूँ।'

'ठीक है, मैं ले आती हूँ।' - पार्वतीजी ने कहा और जाने को तत्पर हो गईं। परंतु भगवान ने उन्हें जाने की आज्ञा न दी और इस कार्य के लिए ब्रह्मपुत्र नारदजी को भेज दिया। परंतु वहाँ पहुँचने पर नारदजी को कोई महल नजर न आया। वहाँ तो दूर तक जंगल ही जंगल था, जिसमें हिंसक पशु विचर रहे थे। नारदजी वहाँ भटकने लगे और सोचने लगे कि कहीं वे किसी गलत स्थान पर तो नहीं आ गए? मगर सहसा ही बिजली चमकी और नारदजी को शिवजी की माला एक पेड़ पर टँगी हुई दिखाई दी। नारदजी ने माला उतार ली और शिवजी के पास पहुँचकर वहाँ का हाल बताया।

शिवजी ने हँसकर कहा- 'नारद! यह सब पार्वती की ही लीला है।'

इस पर पार्वती बोलीं- 'मैं किस योग्य हूँ।'

तब नारदजी ने सिर झुकाकर कहा- 'माता! आप पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप सौभाग्यवती समाज में आदिशक्ति हैं। यह सब आपके पतिव्रत का ही प्रभाव है। संसार की स्त्रियाँ आपके नाम-स्मरण मात्र से ही अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं और समस्त सिद्धियों को बना तथा मिटा सकती हैं। तब आपके लिए यह कर्म कौन-सी बड़ी बात है?' महामाये! गोपनीय पूजन अधिक शक्तिशाली तथा सार्थक होता है।

आपकी भावना तथा चमत्कारपूर्ण शक्ति को देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मैं आशीर्वाद रूप में कहता हूँ कि जो स्त्रियाँ इसी तरह गुप्त रूप से पति का पूजन करके मंगलकामना करेंगी, उन्हें महादेवजी की कृपा से दीर्घायु वाले पति का संसर्ग मिलेगा।

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